जैन धर्म एक प्राचीन धर्म है जैन धर्म अर्थात् ‘जिन’ भगवान का धर्म। ‘जैन धर्म‘ भारत की श्रमण परम्परा से निकला धर्म और दर्शन है। जो उस दर्शन में निहित है जो सभी जीवित प्राणियों को अनुशासित, अहिंसा के माध्यम से मुक्ति का मार्ग एवं आध्यात्मिक शुद्धता और आत्मज्ञान का मार्ग सिखाता है।’जैन’ उन्हें कहते हैं, जो ‘जिन’ के अनुयायी हों। ‘जिन’ शब्द बना है ‘जि’ धातु से। ‘जि’ यानी जीतना। ‘जिन’ अर्थात् जीतने वाला यानि की विजेता । जिन्होंने अपने मन को और अपने आप को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया हो, वे ‘जिन’ कहलाते है। जो खुद को पूर्णतया जीत चुके है।

जैन धर्म के संस्थापक कौन थे ?

जैन धर्म के संस्थापक ऋषभदेव थे और इन्हे ही जैन धर्म का प्रथम तीर्थंकर कहा गया है।

 जैन साहित्य में इन्हें अनेक नमो से जाना जाता है जिनमें प्रमुख है प्रजापति, आदिब्रह्मा, आदिनाथ, बृहद्देव, पुरुदेव, नाभिसूनु और वृषभ नामों से भी समुल्लेखित किया गया है। युगारंभ में इन्होंने प्रजा को आजीविका के लिए कृषि, मसि, असि, शिल्प, वाणिज्य और सेवा- इन षट्कर्मों (जीवनवृतियों) के करने की शिक्षा दी थी, इसलिए इन्हें प्रजा के प्रति कार्यों के लिए ‘प्रजापति’कहा गया , माता के गर्भ से आने पर हिरण्य (सुवर्ण रत्नों) की वर्षा होने से ‘हिरण्यगर्भ’, विमलसूरि-, दाहिने पैर के तलुए में बैल का चिह्न होने से ‘ॠषभ’ , धर्म का प्रवर्तन करने से ‘वृषभ’, शरीर की अधिक ऊँचाई होने से ‘बृहद्देव’एवं पुरुदेव, सबसे पहले होने से ‘आदिनाथ’ और सबसे पहले मोक्षमार्ग का उपदेश करने से इन्हें ‘आदिब्रह्मा’ भी कहा गया है। ऋषभदेव के पिता का नाम नाभिराय होने से इन्हें ‘नाभिसूनु’ भी कहा गया है। इनकी माता का नाम मरुदेवी था। ऋषभदेव भगवान का जन्म कोड़ा कोड़ी वर्ष पूर्व अयोध्या नगरी में चैत्रकृष्णनवमी के दिन माता मरुदेवी के गर्भ से हुआ था। पुनः लाखों वर्षों तक राज्य सत्ता संचालन करने के बाद चैत्र कृष्णा नवमी के दिन ही उन्होंने जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली थी, ऐसा जैन शास्त्रों में कथन मिलता है। उनकी स्मृति में प्रतिवर्ष दिगंबर जैन समाज की ओर से जन्मदिन का मेला आयोजित किया जाता है। अयोध्या दिगंबर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी के वर्तमान अध्यक्ष स्वस्ति श्री कर्मयोगी पीठाधीश रवीन्द्रकीर्ति स्वामी जी – जम्बूद्वीप, हस्तिनापुर वाले हैं।उनके नेतृत्व में पूरे देश की जैनसमाज के श्रद्धालु भक्त मेले में भाग लेने हेतु अयोध्या पहुँचते हैं। वहाँ भगवान ऋषभदेव का मस्तकाभिषेक – रथयात्रा – सभा आदि का आयोजन होता है।

जैन धर्म में तीर्थंकर का मतलब क्या है ?

तीर्थंकर शब्द का जैन धर्म में बड़ा ही महत्त्व है। ‘तीर्थ’ का अर्थ है, जिसके द्वारा संसार समुद्र तरा जाए या पार किया जाए और वह अहिंसा धर्म है। जैन धर्म में उन ‘जिनों’ एवं महात्माओं को तीर्थंकर कहा गया है, जिन्होंने प्रवर्तन किया, उपदेश दिया और असंख्य जीवों को इस संसार से ‘तार’दिया । “तार ” का अर्थ है संसार रूपी समुद्र के भँवर से इंसान रूपी नाव को किनारे लगाना।

जैन धर्म में कुल कितने तीर्थंकर हुए ?

जैन धर्म में कुल 24 तीर्थंकर हुए जिनमें प्रथम तीर्थंकर थे ऋषभदेव और प्रमुख तीर्थंकर में 23 वे तीर्थंकर पार्श्वनाथ और 24 वे और अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी है और महावीर स्वामी को ही जैन धर्म का वास्तविक संस्थापक मन जाता है।

जैन धर्म संस्थापक और अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी के जीवन के बारे में बताये ?

  • 24वें तीर्थंकर वर्धमान महावीर का जन्म 540 ईसा पूर्व वैशाली के निकट कुण्डग्राम गाँव में हुआ था। वह ज्ञातृक वंश के थे और मगध के शाही परिवार से जुड़े थे।
  • उनके पिता सिद्धार्थ ज्ञातृक क्षत्रिय वंश के मुखिया थे और उनकी माता त्रिशला वैशाली के लिच्छिवि राजा चेटक की बहन थीं।
  • महावीर स्वामी की पत्नि का नाम यशोदा था
  • 30 वर्ष की आयु में उन्होंने अपना घर त्याग दिया और एक तपस्वी बन गए।
  • उन्होंने जृम्भिक ग्राम में ऋजुपालिका नदी के किनारे 12 वर्षों तक तपस्या की और 42 वर्ष की आयु में कैवल्य (अर्थात दुख और सुख पर विजय प्राप्त की) नामक सर्वोच्च आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त किया।
  • उन्होंने अपना पहला उपदेश पावा में दिया था।
  • प्रत्येक तीर्थंकर के साथ एक प्रतीक जुड़ा था और महावीर का प्रतीक सिंह था।
  • अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिये उन्होंने कोशल, मगध, मिथिला, चंपा आदि प्रदेशों का भ्रमण किया।
  • 468 ई.पू. 72 वर्ष की आयु में बिहार के पावापुरी में उनका निधन हो गया।महावीर स्वामी की मृत्यु की घटना को निर्वाण कहा जाता है।

जैन धर्म कितने सम्प्रदायों में विभक्त है ?

जैन धर्म दो सम्प्रदायों में विभक्त है (1) स्वेताम्बर (2) दिगम्बर। स्वेताम्बर सम्रदाय के अनुयायी स्वेत वस्त्र धारण करते है जबकि दिगम्बर धर्म के अनुयायी वस्त्रों का परित्याग करते है।

जैन धर्म में कर्मफल से छुटकारा पाने के लिए किन त्रिरत्न के पालन करने को आवश्यक माना है ?

जैन धर्म के त्रिरत्न है – सम्यक दर्शन ,सम्यक ज्ञान और सम्यक आचरण।

महावीर स्वामी ने किन पांच महाव्रतों के पालन करने का उपदेश दिया है ?

महावीर स्वामी के द्वारा बताये गए पांच महाव्रत है – सत्य, अहिंसा,अस्तेय ,अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य। इनमें से पहले के चार महाव्रत जैन धर्म के 23 वे तीर्थंकर पार्श्वनाथ के है और अंतिम महाव्रत ब्रह्मचर्य महावीर स्वामी ने जोड़ा है।

जैन धर्म की कितनी महा संगीतियाँ हुए और किसकी अध्यक्षता में हुई ?

प्रथम जैन संगीति 322 -298 ई. पूर्व में पाटलिपुत्र में स्थूलभद्र की अध्यक्षता में हुई ,इस में जैन धर्म दो भागों स्वेताम्बर और दिगम्बर में विभक्त हो गया। भद्रबाहु दिगम्बर संप्रदाय के प्रतिपादक थे। और स्थूलभद्र स्वेताम्बर संप्रदाय के प्रतिपादक थे

द्वितीय जैन संगीति 512 ई. पूर्व वल्लभी में देव ऋद्धिगणि की अध्य्क्षता में हुई ,इसके अंतर्गत जैन धर्म के धर्मग्रंथो को लिपिबद्ध किया गया. जैन धर्म ग्रन्थ को ‘आगम’ कहा जाता है

महावीर स्वामी ने अपने उपदेश किस भाषा में दिए ?

महावीर स्वामी ने अपने उपदेश प्राकृत भाषा में दिए।

By gsksolution21

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